सिक्के की आत्मकथा
''......उफ़!.....जाने कब इस कब्र से आजादी मिलेगी......जाने कब मुझे बाहर की दुनिया देखना नसीब होगा!......जाने कब मै खुली हवा में सांस ले पाउँगा!.........''
आज से कुछ साल पहले यही मेरी करुण वेदना थी......आप सोच रहे होंगे की मै कौन हूँ, जो कब्र की बात कर रहा है.......जी!.......मै तो धातु का एक मात्र टुकड़ा था, जो जाने कितने लम्बे समय से धरती के गर्भ में बहुत नीचे दबा हुआ,.....अपनी आजादी के लिए रोता रहता था......और आज से कुछ साल पहले उपरवाले ने मेरी गुहार सुन ही ली.....एक खुदाई के दौरान मुझे जमीन से बाहर आने का अवसर मिल ही गया.........
ओह!.......कितना खुश था मै!......दुनिया ही बदल चुकी थी.......खुला आसमान, खुली हवा, खुला वातावरण!........जीवन सफल हो गया था मानो!.......अब तो बस इस दुनिया में अपना अस्तित्व बनाने की ही देरी थी!.........फिर एक दिन कुछ लोग मुझे अन्य धातुओ और वस्तुओ के साथ लेकर चले गए!......मनुष्यों के हाथ लगने के बाद लगा की अब मेरा दुनिया पर छाने का सपना भी पूरा हो जायेगा......और हुआ भी!....लेकिन इस तरह!!!!!!!!!!!!!!
मुझे तपते आग की भट्टी में डाल दिया गया!.......हाय!........इतनी कष्टदायक जलन!.......क्या मनुष्य इतने जालिम होते है!.......शायद हाँ!....क्योकि काफी समय तक उस आग में रखने के मुझे गला दिया गया.....और इतने में भी उनका पेट नहीं भरा तो मुझे एक गोल छोटे सांचे में डालकर बंद कर दिया गया!........पता नहीं कब तक मै छटपटाता रहा!.......और अंततः जब निकाला गया तो मै एक सरकारी सांड की तरह दगा हुआ सरकारी मुद्रा बन गया...........चलो!...कम से कम एक सुन्दर रूप तो मिला. अब मेरा भी एक अस्तित्व बन चूका था. मै हर मनुष्य का चहेता बन गया था. मै इश्वर को दुहाई देने लगा!........और अब शुरू हुआ मेरा भारत-भ्रमण!
सबसे पहले मुझे एक बैंक के लोकर में काफी दिनों तक रखा गया.....वहा मेरी असंख्य बिरादरी मौजूद थी..इसलिए समय आसानी से गुजर गया.एक दिन बैंक के एक कर्मचारी के जरिये एक किसान के हाथो में पहुंचा. किसान कुछ दिनों तक मुझे अपनी धोती में गाँठ बाँध कर रखे हुए था..फिर एक बच्चे से मै एक दुकानदार के पास गया. दुकानदार से एक ग्राहक, ग्राहक से एक मोची, मोची से एक चायवाला, चायवाला से एक ठेलेवाला, ठेलेवाले से एक बच्चे, बच्चे से एक बुद्धे, बुद्धे से एक हलवाई, हलवाई से एक पुजारी, पुजारी से प्रभु के चरणों में पहुचने तक जाने कितना समय निकल गया!.......सफ़र अभी ख़त्म नहीं हुआ!......पुजारी ने कई दिनों तक मुझे अपनी जेब में एक नोट के साथ रखा हुआ था.......नोट से मेरी अच्छी दोस्ती हो गयी....उसने बताया की उसका महत्त्व मुझसे ज्यादा है.....और उसे जलाकर या गलाकर नहीं बनाया गया था..हम दोनों खुश थे.
फिर एक दिन मै एक दुकान, दुकान से एक व्यापारी, व्यापारी से एक सेठ, सेठ से एक मजदूर, मजदूर से एक दारुवाले, और दारुवाले के हाथ से एक शराबी के हाथ जा पहुंचा.......उफ़!.....उस गंदे शराबी ने मुझे जाने कितनी बार चूमा!......फिर एक दिन एक दुकान और दुकान से ग्राहक और ऐसे जाने कितने जेबों में स्थानांतरित होता रहा........अजी!....मैंने तो लोगो को मेरे लिए लड़ते- झगड़ते यहाँ तक की कत्ल करते हुए भी देखा......मेरे लिए दुनिया में बढ़ते पाप को देखकर मै सहम गया. मुझे अपने वजूद से अपराधबोध होने लगा था...........मेरा चैन-सुकून सब छीन चूका था. मै अब अपने वजूद से छुटकारा पाने के लिए बेताब हो उठा. पर ये अब आसान नहीं था.ऐसे ही एक-दुसरे की जेबों से स्थानांतरित होते हुए एक दिन एक पर्यटक के जरिये जापान जा पंहुचा......कुछ दिनों बाद एक भूकंप में मै वापस धरती में समां गया!
''.......उफ़!......हे धरती माँ!......बाहर की दुनिया से तो तेरा ये गर्भ ही अच्छा है!.....अब मै चैन से सोऊंगा!.......अलविदा दुनिया!''..................
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति!
ReplyDeleteइस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (11-08-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
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♥ !! जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ !! ♥
Bahut sundar Rachna..
ReplyDeleteजहाँ से चला था फिर वहीँ पहुंचा.बहुत अच्छी प्रस्तुती.इस तरह लिखना भी हर एक के बस की बात नही है.
ReplyDeleteBahut khub likha gya h........ Hats off to you ❤❤
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